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Thursday, 15 August 2024

विरह में सिर्फ स्त्रियां ही नहीं सूखती सूख जाते हैं पुरुष भी

 विरह में सिर्फ स्त्रियां ही नहीं सूखती

सूख जाते हैं पुरुष भी

होंठ पर पड़ जाती हैं पपड़ियां

लटक जाते हैं गाल

झाड़ियों सी फैलती है दाढ़ी

नहीं सुहाती रंगीन कमीज़ें

आंखों में समा जाता अथाह पीलापन

अनगिनत काली रातों में

जलती हैं ख़ाली आंखें

जलाता है सूरज, बुझ जाती है सुबह

बंजर हो जाती है छाती

जम जाता है हृदय का महासागर

हांथों में नहीं बचता स्पर्श का एहसास

लकीरें काटने को दौड़ती हैं

शिथिल बोझिल सा हो जाता है शरीर

निकल नहीं पाता कोई गुबार मुख से

सुप्त हो जाता है मन का लावा

पसर जाती है सीलन दिलों दीवार पर

वीरान मरुस्थल सा हो जाता है मन

जिनमे रेंगता है मौन ही मौन

 उगते रहते हैं असंख्य कांटें

वे फूंकते हैं धुआं, खुद धुआं हो जाने तक

बटुए में तस्वीर के रिक्त स्थान को 

निहारते हैं, सोचते हैं 

फिर बंद कर देते हैं...

सहेजते हैं वे भी प्रेम के अवशेष

उनके आंसू सुप्त जल स्त्रोत की

तरह होते हैं

रोते हैं पर दिखते नहीं आंसू

पत्थर हो जाता है तकिया

धंस जाता है बिस्तर का गद्दा

एक टक ताकते रहते हैं कमरे

में ऊपर चलते पंखे को गोल गोल 

और समाहित हो जातें है भीतरी भंवर में

प्रेम के अभाव में सिर्फ स्त्रियां ही नहीं मरती 

मर जाते हैं पुरुष भी....

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