हमें जो चीजें बहुत सुख देती हैं उसमें धन की कोई भूमिका नहीं होती। जैसे बॉयफ्रेंड/गर्लफ्रेंड के साथ बाहों में बाहें डालकर घूमना, चुम्बन, सेक्स। मुक्त होकर घूमना। पेड़ पर चढ़ जाना। खरगोश, बिल्ली, कुत्ते के साथ खेलना। नदी किनारे गर्लफ्रेंड/बॉयफ्रेंड के साथ बैठना, पानी के बहाव को निहारना,पानी मे दूर तक कंकड़ फेंकना। यूँ ही टहलते रहना।
इसमें किसी चीज में धन का रोल नहीं है। केवल पेट भरने के लिए धन को इतना जरूरी कर दिया गया, उसके बाद इतनी आवश्यकताएं क्रिएट की गईं कि सुख वाली चीजें लोग भूल ही गए। उन पर नैतिकता के इतने पहरे लगा दिए गए कि वह अपराध बन गया।
असल चीज वह बन चुकी है जिसका हमारे सुख से दरअसल कोई लेना देना ही नहीं है। एक इल्यूजन में हम जीने को बाध्य हैं और वहाँ सुख ढूंढते हैं जहां सुख है ही नहीं।
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