दो शब्द प्रेमियों के लिए ध्यान से पढ़ें :-
प्रेम से ज्यादा उलझन भरा सफर कुछ भी नही होता। कई बार दोनों तरफ भरपुर प्रेम होता है। ना कोई समस्या होती है ना कोई रुकावट। फिर भी सबकुछ फ्रिज सा रहता है। जानते हो क्यों? क्योंकि प्रेम की कमान हमेशा स्त्री के हाथ मे होती है। पुरुष एक हद तक कोशिश करता है फिर छोड़ देता है। अगर कड़वा अनुभव मिल जाए तो वह अपने रास्ते ही बदल लेता है। शुरुवात मे स्त्री नखरे दिखाती है। झिड़कती है। पुरुष इसी को रिजेक्शन समझ लेता है। और डर जाता है। इस तरह की कण्डिशन मे सब कुछ स्त्री के हाथ मे होता है।। अगर वह समझदार है तो सब कुछ सम्भाल लेती है। पुरुष की अकड़ तो बच्चे की तरह है। हक से सम्भालो, डांट के सम्भालो, अगर शिकायत कर रहा है तो सॉर्री बोल के सम्भालो, दुनिया का कोई भी पुरुष अपनी पसंदीदा स्त्री को अगर उस पर भरोसा हो तो दूर नही धकेल सकता। प्रेम वहीं सफल हुए है जिन्हे स्त्री ने सम्भाला। क्योंकि एक बार स्त्री ने परखने के लिए या गुस्से मे उसे झिड़क दिया। पुरुष के सारे रास्ते बन्द है। अगर कोई सड़क छाप आशिक होगा, प्रेम के नाम पर जिसकी मंशा मात्र उस स्त्री का देह है तो वो दुबारा कोशिश करेगा। वरना एक इज्जतदार पुरुष ख्वाब मे भी कोशिश नही करेगा। क्योंकि अगली कोशिश मे मिलने वाले तिरस्कार को वो सम्भाल ही नही पायेगा इसलिए अगर स्त्री चाहे तो रिश्ता रहेगा। वरना नही रहेगा। जहाँ स्त्री ने साफ तौर पर परखने को ही प्रेम कह दिया। उसके बाद पुरुष के द्वारा कोशिश करना मूर्खता है। एक सत्य ये भी है कि स्त्री के दिल मे प्रेम देर से जागता है। और तब तक शायद पुरुष दूर जा चुका होता है। वह तत्काल नहीं होता। वो धीरे धीरे एक ऐसे चौराहे पर जाकर खड़ा हो जाता है जहां से एक रास्ता एहसास का, एक रास्ता संवेदना का, एक रास्ता उम्मीद का, और एक रास्ता प्रेम का, सब धीरे धीरे पुरुष के अंदर मरते हैं, पर सब आहिस्ता-आहिस्ता। दरअसल, जो मरना आहिस्ता-आहिस्ता होता है वह ही, एक न बदल सकने वाली अवस्था होती है जो खामोश, अकेलापन बढ़ते बढ़ते एक जिंदा लाश में बदल जाती है....
लेखक: सुनिल राठौड़ बुरहानपुर.
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