संभोग एक स्त्री के लिए उतना ही ज़रूरी है जितना सासों के लिए हवा — क्योंकि वही उसे महसूस कराता है कि वो जी रही है, सिर्फ निबाह नहीं रही।
मेरी शादी एक ऐसे इंसान से कर दी गई थी, जिसे मैंने न तो चाहा, न ही कभी जानने की कोशिश की। उसका नाम था विराज — एक आम सा लड़का, एक छोटे से कस्बे में पला-बढ़ा, जिसकी ज़िंदगी में बस एक ही सहारा था — उसकी माँ शांति देवी। न कोई भाई, न बहन, न ही कोई रौबदार रिश्तेदार। घर भी छोटा सा, ज़रूरत भर का।
लेकिन इस साधारण से रिश्ते में मेरा दिल नहीं था। मेरा दिल तो कहीं और भटक रहा था — करण के पास। वो लड़का जो मुझे प्यार के वादे देता था, जो कहता था कि एक दिन वो मुझे अपनी दुल्हन बनाएगा। पर किस्मत को शायद कुछ और ही मंजूर था। मैं आ गई विराज के घर — मजबूरी में, समझौते में।
पहली रात, जब सब उम्मीद करते हैं कोई नई शुरुआत की... उसने सिर्फ एक कप दूध मेरी ओर बढ़ाया। मैं चौंकी, सोच रही थी कि अब वो आगे क्या करेगा। और मैंने गुस्से में पूछ ही लिया,
"अगर पति अपनी पत्नी की मर्जी के बिना उसे छुए, तो क्या वो हक कहलाएगा या ज़बरदस्ती?"
उसने मेरी आँखों में देख कर कहा,
"मैं सिर्फ शुभरात्रि कहने आया हूँ। आपकी मर्ज़ी से बढ़कर कुछ नहीं।"
और बिना कुछ कहे वो बाहर चला गया।
मैं चाहती थी कि कोई बहस हो, कोई झगड़ा, ताकि मैं इस रिश्ते से बाहर निकल सकूं। लेकिन वह तो एक शांत नदी की तरह था — ठहरा हुआ, संयमित, अपनी ही लय में।
मैं इस घर में रही, लेकिन कभी अपना कोई कर्तव्य नहीं निभाया। खाना बनाना तो दूर, मैंने माँ (शांति देवी) के हाथ का बना खाना भी नीचा दिखाने की कोशिश की।
एक दिन जानबूझकर मैंने थाली गिरा दी, गुस्से में कहा, "ये खाना जानवर भी ना खाएं!"
विराज ने पहली बार मुझे पकड़ा — थप्पड़ नहीं मारा, सिर्फ मेरी आँखों में झांका और कहा,
"इतनी नफरत क्यों है?"
वो सवाल नहीं था, एक कसक थी। और उसी पल मैं उठी, बिना किसी को कुछ बताए, सीधे करण के पास पहुँची।
"चलो, अब नहीं सहना ये सब, भाग चलते हैं," मैंने कहा।
लेकिन करण अब वो नहीं था, जो वादे करता था। उसके लफ्ज़ों में कोई गर्मी नहीं थी।
"अब भागकर क्या करेंगे? तुम्हारे पास कुछ नहीं, मेरे पास भी नहीं।"
मैं सन्न रह गई। वो जिसे मैं प्यार समझती थी, वो तो बस लालच से भरा था।
थकी, टूटी और बेबस मैं फिर उसी घर लौटी जिसे कभी "जेल" कहा था।
घर सूना था, अलमारी खोली — और वहाँ जो मिला, उसने मेरी दुनिया बदल दी।
मेरे बैंक डॉक्युमेंट्स, गहने, पैसे — सब वैसे ही थे। और साथ में था एक खत:
"मैं जानता हूँ ये रिश्ता तुम्हारे लिए एक बोझ रहा है। लेकिन मैंने तुम्हारी हर चीज संभाल कर रखी है, ताकि जिस दिन तुम खुद लौटो, तुम्हें लगे कि ये घर तुम्हारा है।"
"मैं तुम्हारा पति ज़रूर हूँ, पर जब तक तुम मर्जी से अपना दिल नहीं दोगी, मैं सिर्फ एक इंसान ही रहूंगा। मैं तुम्हारा हक नहीं छीनना चाहता, मैं तुम्हारा विश्वास जीतना चाहता हूँ।"
मेरे अंदर कुछ टूट गया था… और फिर कुछ नया जुड़ने लगा।
अगली सुबह मैंने पहली बार अपने मांग में सिंदूर भरकर खुद को आईने में देखा — अब मैं विराज की पत्नी थी, मन से भी।
सीधे उसके ऑफिस पहुँची और सबके सामने कहा,
"विराज, हमें लंबी छुट्टी पर जाना है। अब मैं तुम्हारी हूं — पूरी तरह से।"
💔 कहानी की सीख:
ज़िंदगी में कई बार हम जिसे “साधारण” समझते हैं, वही सबसे अनमोल साबित होता है।
प्यार, दिखावे और बोलचाल में नहीं — सम्मान, धैर्य और इंतज़ार में छिपा होता है।
अगर आपको ये कहानी दिल छू गई हो, तो एक ❤️ ज़रूर दबाइए और दूसरों से भी शेयर कीजिए — शायद किसी की आंखें खुल जाएं!
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